Sunday, January 31, 2010

टूटती चारदीवारी और ख़तरे में पहरेदार बहुरुपिए

अपनी बात का सिरा मशहूर स्त्री-चिंतक सिमोन द बोउवार के बहाने से शुरू करें, तो ‘औरत जन्म से औरत नहीं होती बल्कि बनाई जाती है।’ यह आज के समय का नंगा सच है, जिसे आज की महिलाएँ शिद्दत से महसूस करने लगी हैं। विज्ञान और विवेक आधारित आधुनिकता की ढेर सारी बाधायें हैं, जो इसे निरंकुश, अराजक और अव्यावहारिक साबित करती हैं। स्त्री के बारे में हम संकीर्णवादी सामंती प्रवृति के शिकार हैं। वर्तमान संचार माध्यमों में स्त्री की छवियों को एक विशेष प्रकार के साँचे में उभारा जा रहा है। उसके देह का प्रदर्शन ‘चीजों’ या ‘वस्तुओं’ के साथ किया जा रहा है।
हाल ही में एक दैनिक अख़बार में छपे उस विज्ञापन को हम मिसाल के तौर पर चुन सकते हैं, जिसमें एक बाइक के प्रचार हेतु स्त्री छवि को इस संदेश के साथ उभारा गया था, ‘ड्राइव मी क्रेजी’। हम आसानी से देख सकते हैं कि आज हर बात नाटकीयता के लहजे में कैसे परोसी जा रही है। किसी उत्पाद के विज्ञापन में स्त्री को दिखाने की मंशा उन्हें सकरात्मक तरीके से ‘प्रमोट’ करना न हो कर स्त्री-सौंदर्य को सेक्स और ग्लैमर्स के हिसाब से दिखाना है। आधुनिक स्त्री को बाज़ार जबरिया इस्तेमाल करने पर तुला है। इसके पीछे बहुत बड़ी राजनीति है, जिसे महज स्त्री-विमर्श के नाम पर प्रोपगेंडा फैलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी और आलोचक जिसमें बहुतेरे खुद भी पाक-साफ नहीं, की नियत पर संदेह व्यक्त करना लाज़मी है।
आज की बाज़ारवादी प्रवृतियों में स्त्री-चरित्र निरुपण के मसले पर लेखिका मन्नु भंडारी कहती हैं, ‘मीडिया ने स्त्री को बिकाऊ बना दिया है। विज्ञापनों में मोबाइल फोन की बगल में खड़ी अर्धनग्न लड़की की उपस्थिति के क्या मायने है? मेरा स्त्री पहनावे के प्रति रोष नहीं है, रोष इस बात पर है कि मीडिया ने वस्तु को बेचने के लिए स्त्री का सहारा लिया है। मीडिया ने स्त्री में यह मानसिकता पैदा की है कि स्त्री का शरीर ही उसकी शक्ति है और इस स्त्री ने अपनी शक्ति पहचान ली है। जबकि स्त्री को बाजार के विरूद्ध खड़ा होने की आवश्यकता है। उसे अपना मनचाहा उपयोग नहीं करने देना चाहिए।’
प्रख्यात पत्रकार सच्चिदानंद जोशी इस बारे में बेबाक शब्दों में कहते हैं, ‘आधुनिकता को परंपरा के साथ मिलाकर प्रस्तुत करने की जो भोंडी कोशिश हमारे माध्यमों के जरिए हो रही है, उस पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। हम शालीनता और संस्कारों की सीमाएँ लाँघते जा रहे हैं। हमारी मान्यताओं, परंपराओं और संस्कृति पर निरंतर आधुनिकता, बाजार और उपभोक्तावाद के नाम पर आक्रमण होते जा रहे हैं।’
लब्बोलुआब यह है कि आज हम आधुनिकता का सीधा मतलब पोशाक और परिधान की रंगिनियों से लगाते हैं। उन युवाओं के प्रेम-प्रसंग से लगाते हैं, जो उच्च शिक्षण संस्थानों तथा विश्वविद्यालय परिसरों में तेजी से पनप रहा है। यह चीज भी आधुनिकता की ही देन मालूम पड़ती है, जहाँ झूठ, मक्कारी, ईष्र्या, घृणा, स्वार्थ तथा ‘यूज एंड थ्रो’ थ्योरी का वर्चस्व है। जरा याद कीजिए हाल ही में रिलीज फिल्म ‘देव डी’ का वह संवाद, ‘दिल्ली में बिल्ली मारकर खा लो, उसे पोसो मत।’ यहाँ बिल्ली का सीधा अर्थ लड़कियों से ही है, वैसे समझने वाले की समझदारी हजार।
यह पूरा सच नहीं है, लेकिन काफी हद तक पुरुष बिरादरी के लिए सोचनीय अवश्य है। आज अगर ‘वेलेंटाइन डे’ पर युवा-प्रेमियों पर लाठी बरसायी जा रही है या मंगलौर के एक पब में ‘श्रीराम सेना’ के अराजक तत्त्व हमला बोल रहे हैं, तो इसके पीछे का तर्क यही है कि आज के समय में भी समाज का एक तबका ऐसा भी है, जिसे अपने बेडरूम में गैर स्त्रियों का कपड़ा उतारना जँचता है, लेकिन ‘पब्लिकली’ यही खुलापन रास नहीं आता। ‘सेक्स स्कैण्डल’ या ‘कास्टिंग काउच’ की घटनाएँ इस बात की पुख्ता प्रमाण हैं।
स्त्री के साथ छेड़छाड़ और दुष्कर्म की घटनाएँ बदस्तूर जारी है। अख़बारी भाषा में इसका कारण बदनियति माना जाता है, जबकि यह बदनियती औरतों की प्रगतिशीलता को बाधित करने का सबसे बड़ा हथियार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी तरह के सांप्रदायिक उन्माद, सामाजिक प्रतिशोध या फिर वर्ग-संघर्ष में सबसे ज्यादा जिल्लत-जलालत स्त्रियाँ ही झेलती हैं। सन सैंतालिस के बँटवारे हो या गुजरात दंगे, स्त्रियों के साथ हुई ज्यादतियाँ आधुनिक समाज का काला चिट्ठा खोलकर रख देती हैं। असल में, छिटपुट घटनाएँ जो हमारे समाज की स्वाभाव बन चुकी है। मनुष्य के अंतस में बसी उस पशुता या हैवानियत का द्योतक है, जो वह बनावटी मुखौटे में छुपा ले जाने की हरसंभव कोशिश करता है।
यदि हम आधुनिकता की बात स्त्री से जोड़ कर करें, तो चारदीवारी में कैद रहने वाली स्त्रियाँ निःसंदेह अब पहले से ज्यादा मुखर और अपने अधिकारों के प्रति सजग हुई हैं। आज की स्त्री स्वयं अपनी भाग्य-निर्माता है। उसे क्या करना है, यह उसे पता है। वह अपना मुकाम स्वयं तय कर रही हैं। चुनौतियों से जूझ रही है। देखा जा सकता है कि कल की तारीख तक हाशिए पर धकेली जा चुकी औरतें, आज केन्द्रीय विमर्श की विषय हैं। वे अपने हक के लिए खुलकर बोलने लगी हैं। चुप्पी तोड़ते हुए वे उस मुकाम को हासिल करने के लिए तत्पर हैं, जहाँ कल तक पुरुष वर्चस्व का डंका बज रहा था। देश की पहली महिला आॅटो चालक सुनीता चैधरी हों या एयर मार्शल पद्मावती वंद्योपाध्याय, सभी तमाम चुनौतियों को दरकिनार कर अपने अस्तित्व की लड़ाई मुस्तैदी से लड़ रही हैं।
बहरहाल, आधुनिक दौर की स्त्रियों ने पुरातन आदर्शों को वर्तमान व्यावहारिकताओं से बदल लिया है। वे धार्मिक व्रत-उपवास की जगह स्वास्थ्य को चुन रही हैं। सिमटी सिकुड़ी दूर-दराज की लड़कियाँ भी अब खुलकर हँसना-बोलना सीख गई हैं। अपने पक्ष के लिए लड़ पड़ना और अंत तक हार न मानना आज की स्त्री का तेवर बन गया है। अगर उनके लिए ‘लिव इन रिलेशनशीप’ या ‘विवाहेतर संबंध’ मुफीद है, तो है। कुछ लौह-मंशा वाली स्त्रियाँ निर्भिक ढंग से ‘समलैंगिकता’ जैसे विवादास्पद कहे जाने वाले विषय पर ‘फायर’ जैसी फिल्में बनाने की ‘दुस्साहस’ दिखा रही हैं, तो ऐसी स्त्रियों को निश्चय ही ‘सैल्यूट’ दागना चाहिए।
निस्संदेह, आधुनिक स्त्री का यह बदलता चेहरा पुरुषवादी सोच के लिए एक चुनौती बन खड़ा हुआ है। पुरुष समाज अप्रत्यक्ष रूप से नई कुंठाओं का शिकार है। उसकी निगाह में औरतों का अपनी सहूलियत और इच्छानुसार जीना, व्यवहार करना या पुरुषों से अप्रभावित रह कर अपनी यौनिकता का आनंद लेना अक्सर पुरुषों में एक विकृत और घातक मानसिकता को जन्म दे रहा है। सरेराह तेजाब फेंकना, छेड़छाड़ करना, बदसलूकी, अश्लील हरकतें, भद्दे कमेंट्स, कामकाजी औरतों पर लांछन, प्रेम-संबंधों में विफलता पर औरतों पर हमले पुरुष की औरतों संग की जाने वाली स्पर्धा का परिणाम कम लैंगिक वर्चस्व दिखाने की मानसिकता अधिक है। लेखिका पूनम सहरावत की बेचैनी उनके इन शब्दों में देखा जा सकता है, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है। समय जरूर बदला है। समाज भी बदल रहा है। औरत की परंपरागत, सामाजिक, सांस्कृतिक छवि भी बदल रही है। लेकिन इसके साथ-साथ औरत को दुष्प्रचारित और दंडित करने के तरीके भी बदल चुके हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है आज के औरत की इस समकालीन पोजीशन और छवि से तालमेल बिठा पाने में अधिकांश मर्दों की असमर्थता।’
ख़ैर, आधुनिक विमर्शों के इस दौर में जहाँ स्त्रियों के अस्तित्व को ‘चिõित’ करने के नाम पर दैहिक शोषण का करतब हो रहा है। सार्वभौमिक उपयोगिता सिद्ध करने की खातिर एक ‘सिंथेटिक कल्चर’ पनप रहा है, जहाँ आधुनिकता का चोला ओढ़ी स्त्रियाँ कम कपड़ों में ज्यादा आज़ाद दिखने का दम भर रही हैं। यह दिखावा या छलावा, जिसमें कुल्हे मटकाती स्त्रियाँ मौजूद हैं, असल में आधी आबादी की प्रतिनिधि ईकाई नहीं हैं। इस बारे में स्त्री-मुद्दों की जानकार डाॅ0 रजनी गुप्त कहती हैं-‘पितृसत्तात्मक संरचनाओं के चलते आज की तथाकथित आजाद स्त्री की संपूर्ण आजादी जिसमें उसकी सामाजिक भागीदारी पुरुषों के समकक्ष हो, यह फिलहाल स्वप्न ही है। इस विज्ञान आधारित आधुनिक युग में आधुनिक सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक हैसियत में कोई बहुत बड़ी तब्दीली नजर नहीं आती। आज की कमाऊ स्त्रियाँ भी कहे-अनकहे समझौतों और दोहरे कार्यभार से ग्रस्त हैं। आर्थिक आजादी से रिश्तों की जकड़ने जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं। प्रताड़ना के नित नए औजारों पर धार दी जा रही है। दरअसल, पुरुषसत्ता की जड़े इतनी गहरी धंसी हैं, जिन्हें तोड़ना या बदलना सचमुच एक लंबी लड़ाई होगी।’

Wednesday, January 27, 2010

याद करो ‘जय हिन्द’ को जरा

दो तारीख़ है, पहली 22 सितम्बर 1920 और दूसरी 22 अप्रैल 1921; हिसाब में दोनों के बीच 12 माह से भी कम का फासला। पहली तारीख को एक काबिल भारतीय नौजवान सिविल सेवा की परीक्षा में चैथे स्थान पर चयनित होता है। परिवार में रौनक का सब्जबाग कि तभी वह दूसरी तारीख़ नमुदार होती है, वह युवा उस नौकरी को ठोकर मार एक नए जमात में शामिल हो जाता है। तत्त्कालीन स्टेट्समैन नामक समाचार पत्र में शीर्षक लगता है-‘कांग्रेस को एक योग्य व्यक्ति मिल गया और सरकार ने एक लायक अफसर गवां दिया।’
यह दिन भारतीय समाज के लिए गर्व का था। भारत को एक ऐसा नौजवान मिला था, जिसके लिए देश से बड़ा कोई सिद्धांत, आदर्श, मूल्य या स्वार्थ नहीं था। आज वह व्यक्ति नेताजी नाम के अलंकरण से सुशोभित है। जी हाँ, सुभाष चन्द्र बोस ने नौकरी छोड़ दी। वैसी नौकरी, जिन्हें उनकी चेतना स्वीकार नहीं कर रही थी। उनके रग का रवा-रवा मानसिक गुलामी की मुखालफत कर रहा था। पराधीन राष्ट्र ललकार रहा था, क्योंकि राष्ट्र को ‘दिल्ली चलो’ का हुंकार भरने वाला नायक चाहिए था। सुभाष के रूप में वह नायक मिल गया, जिसने सशर्त कहा था, ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दंूगा।’
गौरतलब, आज हम सभी उम्र के उसी पड़ाव में हैं, जब से सुभाषचन्द्र बोस ने राष्ट्रहित के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगा देना वाज़िब समझा। उन्हें लगा कहानियाँ बुनने से समाज नहीं बदल सकता। कविताओं के सतही वाचन से संवेदनाएँ जाग नहीं सकती। इसके लिए चाहिए-पूर्ण समर्पण और संपूर्ण प्रयास। सर्वप्रथम जरूरी है-चाल, चरित्र और चेहरा में साम्यता।
भूल न करें कि मैं यहाँ किसी क्रांति या आंदोलन का चरित्र बखान कर रहा हँू। नेताजी के तर्जं पर आजाद भारत में पुनश्च ‘भारत की असली स्वतंत्रता’ का पुनर्पाठ कर रहा हँू। वैसे समय में जब मिसाइलें मिसाल कायम कर रही हैं। हिंसा और क्रूरता का विद्रूप परिवेश रचने वाले ‘विश्व-शांति’ के नाम पर अपना साम्राज्यवादी एंजेडा फैलाने में तल्लीन हैं। मैं ‘जय हिन्द’ का जयघोष करने वाले वीर, बहादुर और जांबाज शख़्सियत के अवतार लेने की दुहाई नहीं दे सकता।
अपना ऊँट किस करवट बैठ रहा है। इसका भान होना हमारे नौजवान साथियों को जरूरी है, जिनकी आबादी देश की आधी आबादी के आस-पास है। दरअसल, यह ऊँट है अपना लोकतंत्र, जिसके सहारे हमें रेतीले रेगिस्तान को पार करना है। अभाव, भूखमरी, गरीबी, महंगाई, प्राकृतिक आपदा जैसे दैत्याकार समस्याओं से निपटना है। एकमात्र सहारा है यह। अगर लोकतंत्र में खामियाँ और खराबियाँ इसी तरह बरकरार रही, तो कल की तारीख़ में हिन्दुस्तानी साम्राज्य की चूलें हिल जाएंगी। विरासत की तमाम स्मृतियाँ, जो एक भारतीय को गर्व और गौरव करने लायक ‘स्पेस’ मुहैया कराती हैं, चाहे वो ‘सर्वधर्म समभाव’ हो या ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ या कि ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ विलुप्त होते देर नहीं लगेगी।
मैं गाँधीवादी आदर्श का कायल हँू। लेकिन उसका व्यावहारिक धरातल पर अवतरण कैसे हो? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसके लिए हमें अपने चरित्र और आचरण में नेताजी माफिक कठोर संकल्प को शामिल करना सीखना होगा। अपने मूल्य-सिद्धांत और सभ्यता-संस्कृति के प्रति उदार किंतु दृढ़ भाव रखना होगा। अपने राष्ट्र के निर्माण के लिए सुभाष जी जैसे अडिग व्यक्तित्व का जीवन जीना होगा। ताकि पूँजी से लिपटी आधुनिक-उत्तरआधुनिक शब्दावली की भौतिकवादी हवाएँ बिल्कुल समीप से गुजर जाए, पर हमे आँच न आये, हम जड़ से उखड़ न सके।
एक हिन्दुस्तानी होने का भाव हम विद्यार्थियों में स्पष्ट तरीके से परिलक्षित होना चाहिए। हमारे बोल में अपनापन घुला होना चाहिए। पहनावे-परिधान में आधुनिक रंगरोगन के बावजूद अपनी संास्कृतिक पहचान समेटे होने की कुव्वत होनी चाहिए। ऐसा हो तभी आज की तारीख़ में सुभाषचन्द्र बोस को याद करने का महत्व है। उनके योगदान का बखान करने का औचित्य है। अन्यथा 23 जनवरी को रोज बदलने वाले अंकों का गुच्छ ही बने रहने दीजिए। इसमें जयंती जैसी औपचारिक कवायद करने की कोई जरूरत नहीं।

Thursday, January 21, 2010

युवा नेता अपराधवीर जी का जनता को उद्बबोधन

प्रिय भाइयों,
आपके जुझारुपन के हम कायल हैं। आपके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली महिलाओं के बुलंद हौसले पर फिदा हैं। आपकी बिरादरी में शामिल युवा साथियों का हम विशेष रूप से शुक्रगुजार हैं, जो हर मौके पर हमारे साथ कमरकस कर डटे हैं। हम ने जिंदगी में दौलत खूब कमाये। ऐश-मौज भी खूब किए। अपने खिलाफ एक लफ़्ज बर्दाश्त नहीं किया। पंगा लेने वालों को सरेआम नंगा कर मौत की नींद सुला दिया।
कबूल करता हँू, मैंने नासमझी की। उम्र के जोश में जो हरकत की, उसके लिए लज्जित हँू। क्षमाप्रार्थी हँू आप-सबका कि आपके घर की बहू-बेटियों पर बुरी नज़र डाला। फिर भी आपने इसी जल्लाद को अपने घर का असली सपूत माना। हथेली पर सत्ता का ताज रखा। अपने क्षेत्र का 40 वर्ष के उम्र में युवा मंत्री होने का गौरव प्रदान किया। विरोधी पार्टियों ने मेरे खिलाफ षड़यंत्र रचे। मुझे हराने के लिए न जाने कितने हथकंडे अपनाये।
पर जीता कौन...? मैं, और हारे वो बहुरुपिए जो सालों से आपके बीच समाज-सेवा का नाटक कर रहे हैं। आपकी सहानुभूति हासिल करने के लिए आपके बीच शिक्षा का पाठ पढ़ा रहे हैं। डाॅक्टरी कैम्प लगाकर मुफ्त इलाज का ढिंढोरा पिट रहे हैं। मानवाधिकार के नाम पर आपका जन-समर्थन पाने की राजनीति कर रहे हैं। लेकिन जनता-जनार्दन जान गयी है कि उसका असली सेवक कौन है? प्रजापति होने का दर्जा किसे दिया जाना चाहिए।
आज के जमाने में कोई बेवकुफ भी नहीं चाहेगा कि शास्त्र और सिद्धांत बांच कर अपना उद्धार कर लें। दरअसल, परलोक सिधार जाएंगे पर चीजें टस से मस नहीं होंगी। साल-दर-साल आकाल पड़ेंगे, पर सुनवाई नहीं। बाढ़ आपका घर-बार चैपट कर देगा, पर काईवाई नहीं। आपके घर की इज्जत निलाम होगी, सफर सड़क पर नहीं गड्ढे में होगी, बीमारी जानबूझकर जानलेवा बन जाएगी, पर कोई रहनुमा नहीं आएगा आपका रोना-धोना और मातम-विलाप सुनने। उसके लिए चाहिए मर्द और पौरूष वाला व्यक्तित्व। ऐसा नेता जो धनबल और बाहुबल में पारंगत हो। जो आपके असमय दिवंगत होने पर आपके घरवालों का तत्काल मदद कर सके। आपकी सयानी बिटिया के हाथ पीले कर सके। आपके बिटवा को समुचित शिक्षा दिला सके। ऐसे समर्थं आदमी को केवल उसके पिछले कारनामों और कारगुजारियों को आधार बनाकर चुनावी दौड़ से बाहर नहीं किया जा सकता। सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहा जाता।
आदमी जन्म से अपराधी नहीं होता। क्रूर और हिंसक परिवेश बनाता है। आज उसी के बदौलत कमाये दौलत को मैं आपके बीच खुले दिल से देना चाहता हँू। आप संकोच नहीं करें। यह कोई आप पर अहसान नहीं है। यह मेरा फर्ज़ है जिसे मैं आपको अदा कर रहा हँू। आपका दिया यह पद-पदवी रहा तो देर होगा अंधेर नहीं। फिर से अशर्फिया जमा होंगी, आफरात दौलत का पिटारा होगा। विश्वास कीजिए मेरा। मैं आपके घर का बेटा हँू, आर्शीवाद के लिए इस मंच से आपको प्रणाम करता हँू।
आखिर में कहना चाहूंगा। मत भूलो आपलोग कि आज 26 जनवरी है। ऊपर वाले को धन्यवाद कि मुझे आपके बीच इस महान ध्वज को फहराने का सुअवसर मिला। खुश हँू मैं, आज अपना गणतंत्र 60 का हो गया। भारत की संसदीय नागरिकता मिली है, तो कुछ धर्म तो निभाने ही होते हैं-राष्ट्र के नाम पर। इस नाते आपके बीच खड़ा हो कर टूटी-फुटी भाषा में जो बोल सका, उसके असली हकदार आप ही हैं।
चारो तरफ एक स्वर में आवाज़ गूंजे-
दागी(?) है, तो अच्छा है,
गैया का असली बाच्छा है।

Sunday, January 17, 2010

पश्चिम बंगाल का ‘राजनीतिक सूरज’ अस्त

यह दुखद घड़ी ऐसे समय में नमुदार हुआ है, जब पश्चिम बंगाल में सत्तासीन सरकार के बुरे दिन चल रहे हैं। वामपंथ अपनी नाकामी और बुजदिली का झोला लिए फिर रहा है। माक्र्सवाद और साम्यवाद के नाम पर फिकरे कसे जा रहे हैं या उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न उठ रहे हैं। कद्दावर नेता ज्योति बसु ने आँखें मूंद ली। पिछले हफ्ते निमोनिया की शिकायत पर कोलकाता के एमआरआई अस्पताल में उन्हें भर्ती कराया गया था, जहाँ स्थिति नाजुक थी। शरीर के अंदरूनी अंग शिथिल पड़ रहे थे। डाॅक्टरों ने उन्हें बचाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफलता न मिल पाई। अपने आदर्श-मूल्यों का आजीवन निर्वहन करने वाले इस वयोवृद्ध नेता ने रविवार की सुबह 11 बजकर 47 मिनट पर अतिम संास ली।
95 वर्षीय ज्योति बसु इस प्रदेश के लिए मेरुदंड समान रहे हैं। गरीब-गुरबों के लिए वो मसीहा थे। भूमि-सुधार कार्यक्रमों से पश्चिम बंगाल के किसानों का उन्होंने जो हित किया, वह बेमिसाल है। यह देश का ऐसा पहला प्रांत है, जहाँ फसल कटकर पहले बटाईंदार के घर जाती थी। इससे बिचैलियों का मकड़जाल और उनकी भूमिका ख़त्म हो गई। ज्योति बसु सरकार ने भूमि सुधार के तहत सरकार और जमींदारों के कब्जे की ज़मीनों को तकरीबन 10 लाख भूमिहीन किसानों को बांट दी। ऐसा कर दिखाना अन्य राज्यों के लिए दूर की कौड़ी है। पश्चिम बंबाल की जनता ने इस नेकी का फ़र्ज अदा किया। ज्योति बसु लगातार 23 वर्षों तक पश्चिम बंगाल की राजनीति का अगुवा बने रहे। 1977 में पहली बार सत्ता का बागडोर थामने वाले इस चमत्कारी नेता को बाद के 23 वर्षों तक कोई चुनौती न दे सका। स्वास्थ्य कारणों से वर्ष 2000 में उन्होंने यह जिम्मेदारी बुद्धदेव भट्ाचार्य को सौंप दी।
ज्योति बसु पक्के कैडर थे, लेकिन उन्हें विदेशी निवेश और बाज़ारोन्मुखी दबाव का भान था। देश के अंदर तीव्र गति से हो रहे पूँजीगत बदलाव को देखते हुए उन्होंने इस ओर जानबूझकर रूख किया। लेकिन मज़दूर यूनियनों के विरोध ने उनकी सोच को कभी सच नहीं होने दिया। बावजूद इसके मुख्यमंत्री ज्योति बसु कैबिनेट की अंतिम बैठकों तक अपनी बात को पूरी ताकत के साथ रखते थे। वह कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश की तरह ही अपने प्रदेश में संचार तकनीक और सूचना प्रौद्योगिकी विकसीत करने का इच्छुक थे। हाल के दिनों में पार्टी के कारनामों से वह क्षुब्ध और अप्रसन्न दिख रहे थे। पार्टी के गिरते साख और कैडरों की निष्ठा और बर्ताव में आ रहे गिरावट से ज्योति बसु को लगने लगा था,‘वामपंथ का अंतकाल सन्निकट है।’
ज्योति बसु ने कभी अपनी लोकप्रियता और राजनीतिक प्रतिष्ठा को नहीं भुनाया। उनके लिए पार्टी कमान का फैसला सर्वमान्य था। 1996 में केन्द्र में संयुक्त मोर्चा का गठबंधन सरकार जब बना, तो बसु को प्रधानमंत्री बनाने पर आम-सहमति बनी। पार्टी ने इस पर मुहर नहीं लगायी, जिस वजह से ज्योति बसु प्रधानमंत्री के पद पर आसिन होने से वंचित रह गए। वह भी वैसे समय में जब क्षेत्रिय राजनीति में ज्योति बसु के टक्कर का कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं था। काफी बाद में बसु ने खुद भी इस निर्णय को ‘ऐतिहासिक भूल’ कहा। लेकिन उस समय ज्योति बसु ने न तो मुखालफत की और न ही दल-बदल की धमकी दी। यह सच्चा आदर्श आज के राजनीतिक परिवेश में ‘मृग मरीचिका’ ही है। अपने स्वार्थ के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाने वाले राजनीतिज्ञों को इससे सीख लेनी चाहिए। आज वामपंथ जिस धुरी पर नाच रहा है, उसमें नानाप्रकार के पेंच हैं। अब लोगों को वामपंथ से मोहभंग होने लगा है। क्रांति और आंदोलन के बूते सत्ता-परिवर्तन का सपना देखने वाली वामपंथ स्वयं अपने आदर्शों से विचलित है। उसकी चूले हिल रही हैं और उम्मीद बेमानी ही कही जाएगी कि सन्निकट भविष्य में वामपंथ का पूरे देश में राज होगा। हाल के कारगुजारियों से प्श्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी के भविष्य पर भी खतरा मंडराने लगा है। भद्रजनों का समाज उनके खिलाफ है। राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों ने विरोध का मोर्चा खोल रखा है सो अलग।
दरअसल, पार्टी की नीतियों का जिस तरह से आलोचना और छिछालेदर जारी है, वह कहीं न कहीं ज्योति बसु के पारंगत राजनीतिक अनुभव और विवेकपूर्ण निर्णयों का हालिया समय में आभाव दर्शाता है। हमें ऐसे नेता के चले जाने का गम तो हैं ही, सबसे ज्यादा डर वाम पार्टी के अंधे होने का है। गूंगा-बहरा तो वो काफी पहले ही हो चुकी है। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक और दैनिक समाचारपत्र ‘टेलीग्राफ’ के राजनीतिक संपादक आशीष चक्रवती का यह कहना निराधार नहीं है कि ‘बसु कम्युनिस्ट कम व्यावहारिक अधिक दिखते थे, एक सामाजिक प्रजातांत्रिक। लेकिन उनकी सफलता यह संकेत देती है कि सामाजिक लोकतंत्र का तो भविष्य है लेकिन साम्यवाद का अब और नहीं।’

Friday, January 15, 2010

भैया! बना रहे बनारस हर दम

ऐसे समय में जब भारतीय संस्कृति पर सांस्कृतिक हमला जारी है. रहन-सहन से लेकर जीने का सलीका-तरीका तक बदलाव की चपेट में है. जिंदगी में आपाधापी, हो-हल्ला और चिल्ल-पों बढ़ी है. शब्द, संवेदना और सामाजिकता का दायरा घटा है. इन तमाम बुरे ख्यालातों और डरावने आशंकाओं के बीच भी प्राचीन स्मृतियाँ न तो विलुप्त हुई है और न ही बिखरी है. बनारसी परंपरा की कौन कहे, यह तो सदैव संबंधों को गर्माहट और गरिमा प्रदान करने का काम करता रहा है. लेकिन बनारस में रचने-बसने खातिर कुछ जरूरी शर्ते हैं. इसे बनारसी अदब में कुछ इस प्रकार कहा जाता है-‘राड़, साँढ़, सीढ़ी, सन्यासी; इन से बचै तो सेवै काशी’ एक और बात कही जाती है कि बनारस को पूर्णता में जानना मुश्किल है. यह हमेशा स्वयं को सौ-फीसदी प्रस्तुत करने से बचता है. यों तो कला, साहित्य, सिनेमा के अलावा नवसंचार माध्यम अपने-अपने हिसाब तथा दृष्टिकोण से इस ऐतिहासिक शहर का मुआयना करते आये हैं. परंतु अद्भुत और रहस्यमयी बनारस आज भी उनके लिए अजनबी और उतना ही अपरिचित बना हुआ है. कवि केदारनाथ सिंह ने बनारस की इस बनावट-बुनावट को ‘बनारस’ शीर्षक कविता में सधे अंदाज में चित्रित किया है-
‘अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है’
अगर हम इस शहर की प्राचीनता को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में खंगाले तो बनारस से वर्तमान वाराणसी में रूपांतरण शनैः-शनैः हुआ है. वैदिक काल में जहाँ यह जीवन-मृत्यु एवं मोक्ष-मुक्ति का पावन केन्द्र था. वहीं जैन-बौद्ध संप्रदायों के लिए ज्ञानाश्रयी स्थल था. आज सारनाथ की ख्याति इन्हीं कारणों से है, क्योंकि महात्मा बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने शिष्यों को उपदेश इसी जगह दिया था, जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘धर्मचक्रपरिवर्तन’ के नाम से जाना जाता है. हिन्दु धर्मावलम्बियों की दिव्यस्थली कहे जाने वाले बाबा विश्वनाथ मंदिर, दुर्गा मंदिर, संकटमोचन मंदिर तथा कालभैरव मंदिर प्राचीनकाल से ही धार्मिक-संकेन्द्रण के महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं. कबीर और रैदास, जो भक्ति-आंदोलन के आधार-स्तंभ माने जाते हैं. उनका जन्मस्थली और तपोभूमि यही शहर है. राजशाही और व्यवस्थित राजतंत्र के हिसाब से काशी-नरेश का ओहदा सर्वोपरि था. मशहूर रामनगर का किला आज भी वास्तु और स्थापत्य के विचार से महत्वपूर्ण भारतीय विरासत हैं. जहाँ भ्रमणशील पर्यटकों की दिनभर आवाजाही लगी रहती है. लोक-कला और लोक-चेतना की दृष्टि से उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित रविशंकर, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, किशन महराज जैसे जादुई शख्सियतों की सरजमीं बनारस आज भी शास्त्रीय संगीत और गायन विधा में अव्वल है. अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इन प्रसिद्ध लोगों की सहज जीवनशैली और मृदुभाषिता आमजन को बेहद प्रभावित करती है. इसके अलावे यह जिक्र जरूरी है कि वैचारिक संजीवनी का प्रस्फुट्टन और साहित्य एवं हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव-विकास काशी से ही हुआ है. जिसे कबीर, तुलसी, रैदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, महामना मदन मोहन मालवीय, रामचन्द्र शुक्ल ने समकालीन हिसाब से गढ़ा. अब यह दारोमदार नई पीढ़ी के नायकों मसलन चंद्रबली सिंह, नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह और ज्ञानेन्द्रपति पर है, जो अंधाधुंध बदलाव के चपेट और चंगुल में कैद वर्तमान मानव-समुदाय को वैचारिक खुराक प्रदान करने हेतु तत्पर हैं.
सिनेमा से आमआदमी का साबका हर रोज पड़ता है. क्योंकि यह समय, समाज और संस्कृति का प्रतिबिम्ब है. बनारस इसके दायरे से भला कैसे दूर रहता. अतएव, फिल्मों की दुनिया में अमिताभ ने बनारस को ज्यादा लोकप्रियता दिलायी. मसलन, ‘ओ...खइके पान बनारस वाला...कि खुल जाए बंद अक्ल का ताला.’ दरअसल, सिनेमा के रूपहले परदे पर बनारस को लेकर बहुत सारी फिल्में बनी हैं या फिर अपरोक्ष ढंग से उनमें इस शहर का जिक्र मिलता है. बनारस के ठेठपन और भदेसपन को बड़े ही सूक्ष्मता और सहजता के साथ सिनेमा में फिल्माया जाता रहा है. नामों की फेहरिस्त में पकंज पराषर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘बनारस-अ माइस्टिक लव स्टोरी’ के अतिरिक्त ‘लगा चुनरी में दाग’, ‘धर्म’, ‘चोखेर बाली’ शुमार है. विवाद और विरोध की वजह से दीपा मेहता ‘वाटर’ फिल्म भले यहाँ न बना पायी हों, पर वह बनारस केन्द्रित एक महत्वपूर्ण फिल्म है. अमूमन बनारस पर फिल्म बनाना आसान काम नहीं है. क्योंकि यहाँ बिम्बों की भरमार है. एंग्ल और लोकेशन के अनगिनत स्पाॅट हैं. अब निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर पर निर्भर है कि वह अपने विजुअल्स में क्या दिखाना चाहता है और क्या छोड़ना?

रहना नहीं रमना कहिए बनारस में

भारत की सांस्कृतिक राजधानी बनारस अन्य शहरों से कई मायने में जुदा है. यहाँ पारंपरिकता से जुड़ाव है, तो आधुनिकता का रंगरोगन भी. धर्म और आस्था का पुरातनपंथी दिनचर्या है, तो कला, साहित्य और वैचारिक बहस-मुबाहिसे भी. यहाँ लोकसेवा के निमित बने अनेकों धर्मशाला हैं, तो पाँच-सितारा होटल और महँगे रेस्तराँ भी. एक तरफ पारंपरिक बुनकरों द्वारा बनाये कपड़ों का बाजार है, तो दूसरी तरफ माॅल-कल्चर की तर्ज पर निर्मित गगनचुंबी मल्टीप्लेक्स. गंगा किनारे बने घाटों की संख्या तकरीबन सौ से ज्यादा हैं. जिसके इर्द-गिर्द हमेशा श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है. फूल-माला लिए धमाचैकड़ी करते छोटे उम्र के बच्चे भी घाटों के समीप आकर्षण का मुख्य केन्द्र होते हैं, जो बालसुलभ तरीके से पूजन-सामग्री लेने के लिए निवेदन करते मिल जाएंगे. दुनियावी तामझाम से बेफिक्र यह रहस्यपूर्ण जीवन परदेशी मानवों के अंदर चरम कुतूहल का संचार करता है. दिलचस्प शहर है बनारस, जहाँ सलाना 5 लाख के करीब सैलानी आते हैं। उनकी यह आवाजाही इस शहर की जीवंतता का सबूत है, जो यहाँ आकर यही का हो जाना चाहते है। गंगा-जमुनी तहजीब, जो मानव के सहअस्तित्व का प्रमुख लक्षण है, बनारसवासियों में गहरे पैठी है. लिहाजा, छद्म मजहबी उन्मादों, सांप्रदायिक कुचक्रों तथा पारस्परिक सौहार्द बिगाड़ने वाले राजनीतिक हथकंडों को प्रशय का मौका ही नहीं मिलता.
किस्म-किस्म के नामों, उपनामों और मिथकीय उपाधियों से नवाजा जाता है बनारस. कोई इसे गलियों का शहर कह आनन्दित होता है, तो किसी को घाटों का जीवन इतना लुभाता है कि वह इसे घाटों का शहर समझने लगता है. बनारसी साड़ियाँ, जो कभी भारतीय नारियों की पसंदीदा परिधान थी. आज प्रायोजित माॅडल और फैशन के युग में हाशिए पर हंै, किंतु साँस टूटी नहीं. आज भी बनारसी साड़ियों की मांग वैवाहिक अवसरों पर सर्वाधिक है. उसी तरह फास्टफूड और कोल्डड्रिंक के इस जमाने में भी अगर लोग मिट्टी के कुल्हड़ पसंद करते हैं, तो इसके पीछे बनारसीपन जुड़ाव पहली वजह है. इसी तरह शौकीन लोग पान का बीड़ा चबाते हुए देश-विदेश के हाल-हालात पर चर्चा करते हैं, कला, साहित्य और लोक-चेतना के बाबत बहस करते हैं. ताज्जुब है कि इस शहर में जेट-वायुयान के युग में भी ‘एक्का’ अर्थात घोड़ागाड़ी प्रचलन में है. ठंडई, लस्सी, कचैड़ी, जलेबी और इमरती के दूकानों पर उमड़ती रेलमपेल भीड़ रोजाना का टंट-घंट है. यही नहीं धर्म, शास्त्र, वास्तु, कला-साहित्य, संगीत, नाटक, रामलीला, लोकगीत व गायन सभी क्षेत्रों में अग्रणी है बनारस. जहाँ आ कर पर्यटक खुद ही अपना सुध-बुध खो देते हैं. दर्षनार्थी मंत्रमुग्ध हो इसके चप्पे-चप्पे का खाक छानते हैं. आगंतुक घाटों के किनारे बने प्राचीन इमारतों, किलानुमा मेहराबों तथा नक्काशीदार भवनों के बीच से पावन नदी गंगा को अपलक निहारते हैं. किसी एक मुंडेर या झरोखे से सुबह-ए-बनारस का नजारा देखते हैं. सांध्य आरती, जो बनारस का पहचान-प्रतीक है को देखने हेतु जबरिया नावों की सवारी करते हैं. निःसंदेह कण-कण में थिरकन का अहसास कराते इस शहर में उमंग, उत्सव और उल्लास का जलवा जिस बुलंदी पर है. उसे देखकर ईष्र्या स्वाभाविक है. यँू तो इस उम्रदराज शहर में समय के साथ पैदा हुई समस्याएँ भी ढेरों हैं. लेकिन वह इन सभी से अपने हिसाब से निपटता है.
(जारी)

बदले-बदले ये नज़ारे हैं...,

लच्छेदार शब्दों में शुरुआत करें, तो कहा जा सकता है कि आज आज़ादी का मतलब कोकाकोला की तरह टेस्टी पेय हो गया है। उत्सव और उल्लास के उजास में लिपटा एक ऐसा तोहफ़ा, जिसको पाने के लिए आज की पीढ़ी को कुछ ख़ास करतब नहीं करना पड़ा। कारागार और काला-पानी का संत्रास नहीं झेलना पडा़। और न ही अपना सर्वस्व राष्ट्रहित में आहूत कर देने की नौबत आई। ऐसे में अगर युवा पीढ़ी ‘मस्ती की पाठशाला’ और ‘पप्पू काॅण्ट डांस स्साला...,’ का ‘टन...टना...’ राग अलापने में मशग़ूल है, तो इसमें उसकी क्या गलती? उपलब्ध चीज़ों का उपयोग आज की उपभोक्ता संस्कृति की पहली शर्त है, चाहे देश की अधिकांश जनता भूखी-नंगी और रोगग्रस्त ही क्यों न हो?
असल में युवा पीढ़ी के ऊपर आक्षेप लगाना आसान है, लेकिन इन सवालों से जूझना बेहद मुश्क़िल। आज हमारे शीर्ष पंक्ति के हुक्मरानों का जो चारित्रिक गठन है, उसमें अनगिनत सुराख़ हैं। हमारे अभिभावकों के अंदर भी मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति तिरस्कार की भावना घर करती जा रही है। ऐसे में युवा पीढ़ी से उच्च मानदंडों की अपेक्षा करना बेमानी है। उचित और जिम्मेदार संस्कारों के अभाव में आज की उत्तर पीढ़ी में राष्ट्र के प्रति सकारात्मक सोच और चिंतन की रहितता और समृद्ध हुई है।
असल में शब्दों से सिर्फ कागज काले किए जा सकते हैं, उनसे आवाज़ नहीं निकाली जा सकती। आज हमारे खुद के तंत्र में अनेक ख़ामियाँ हैं। हर शाख़ पर उल्लू बैठा है। लोगबाग त्रस्त और परेशान हैं। उम्मीद की किरण कहे जाने वाले युवा जमात में अधिकांश के पास सक्षम बुद्धि-विवेक नहीं है। और जिनके पास है, उन्हें फैशन, ट्रीट, पार्टी और वेलेंटाइन डे मनाने से फुरसत नहीं है। कुछेक दिलेर युवा, समाज और सत्ता-परिवर्तन का स्वप्न भी देखते हैं, तो सहारे की दीवार अंदर से खोखली और झूठ-मक्कारी के रवे से सनी हुई मिलती है। इन दिनों क्षितिज में एक नया महानायक जन्मा है-बराक ओबामा। अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में इनसे ढेर सारी आशाएँ हैं, पर भारतीय युवाओं को इनके नज़रिए से खुद को आँकना बेवक़ूफ़ी ही कही जाएगी। भारतीय परिदृश्य में बदलाव के लिए भारतीय सरज़मीं से निकले नायक की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि भारत में क्षमतावान युवा नहीं हैं, प्रतिस्पर्धा में अव्वल साबित होने वाले बाज़गीर ज़ांबाज़ नहीं हैं। आप खुद देखें, आज काॅरपोरेट सेक्टर से लेकर मून-मिशन तक नई पीढ़ी की धमक ज़बर्दस्त है। बस उनकी कमी मुख्यधारा की राजनीति और नौकरशाही परंपरा में खल रही है। अभी तक युवाओं के शौर्य, साहस, विवेक और चेतना को गलत तरीके से आजमाया गया है। उनकी सोच और स्वप्न को छला गया है। आज यदि भारत की अधिसंख्य जनता कंगाल है, तो इसकी मुख्य वजह हमारी खुद की बनाई नीतियाँ हैं। लेकिन यह रोना-धोना अब किस काम का? सत्ता और सरकार अब अपनी है। जनता के हुक्म पर सड़क से संसद तक का सफर पूरा होता है। फिर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में घोर हताशा और निराशा का क्या औचित्य?
साथियों, मैं जानता हँू कि आज गणतंत्र दिवस के मौके पर अख़बार, रेडियो और टेलीविजन अपने चिर-परिचित अंदाज़ में राष्ट्रघोष करते मिलेंगे या फिर आज़ाद भारत की वर्तमान दुर्दशा पर चीखते-चिल्लाते। लेकिन ये भी किसी ‘रियलिटी शो’ के प्रायोजित नौटंकी से भिन्न नहीं है। हम खुद से तो अपनी नीति-रणनीति तय कर ही सकते हैं। मंज़िल पाने की हजारों ख़्वाहिशें हैं, पर मुकम्मल रास्ता कौन सा चुनें, यह सबसे बड़ा प्रश्न है। हिन्दुस्तानी होने का अर्थ सिर्फ़ भारत में रहना भर नहीं होता। यहाँ की हरेक चीज़ से अपनापन महसूस करना, उनके लिए खुद के अंदर जगह होना, चाहे वह मानसिक और वैचारिक ही क्यों न हो। आज के युवाओं की गलत संगत और अपराध में बढ़ती संलिप्तता मन में क्षोभ पैदा करती है, पर बदलाव की गुंजाइश के लिए इन्हीं बाजुओं पर नजरें टिकाना हमारी जरूरत है। क्योंकि जो आज गलत कर रहे हैं, वो नादान हैं। जिस दिन ये समझदार हो गए, भारत का कायाकल्प हो जाएगा...निश्चय ही।